अस्तित्व — एक प्रतिध्वनि / पूनम चौधरी
कोई देखे
या न देखे।
अस्तित्व की अनुभूति
दृष्टि पर निर्भर नहीं होती।
सूर्य छिपता है —
साँझ की संदर्भ-रेखा में,
मौन, शांत —
मानो यह डूबना
अवसान नहीं,
आह्वान हो किसी नवालोक का
शेष?
या आरंभ?
नदी—
जब खोज लेती है पथ
चट्टानों में से
तो
वह प्रवाह नहीं,
एक स्व-स्वीकृति है।
प्रश्न
न क्रिया का है
न प्रतिक्रिया का —
बल्कि बहना
उसका
सतत उद्घोष है।
बुरूँश —
विरक्त पर्वतों की मौन उत्कंठा।
क्षणिक- सा जीवन,
न कोई दर्शक,
न कोई संवाद।
फिर भी वह खिलता है
जैसे आकांक्षा स्वयं को
रंग में ढाल ले।
उसकी गंध
नहीं माँगती साक्षात्कार —
वह अपने होने में
पूर्ण है।
रात्रि—
विशाल, निर्वाक्,
उसके तिमिर में
टिमटिमाते जुगनू
नहीं करते प्रतिस्पर्धा
वे अंधकार से
रचते हैं संवाद
छोटे, क्षीण,
किंतु अपने होने की
गरिमा से पूर्ण।
मरुस्थल में उगती नागफनी—
उष्णता में काँपती
अनेक विघ्न उसके अस्तित्व पर लगाते हैं प्रश्न,
कोई नहीं है देखने वाला,
फिर भी वह सजग है,
मानो अस्तित्व
हर आकांक्षा से मुक्त
स्वतः सिद्ध है।
और हम?
हम भी रुक नहीं सकते—
क्योंकि चलना
प्रयोजन नहीं,
एक स्व-प्रमाण है—
कि हम
यहाँ हैं,
अब भी।
प्रशंसा?
वह एक प्रतिध्वनि हो सकती है—
परंतु यदि वह न भी हो,
तो मौन
खंडित नहीं होता।
अस्तित्व
साक्षी से परे,
प्रशंसा से निर्लिप्त,
किंतु फिर भी
जीवित,
उत्तरत।
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