अस्पताल का बिस्तर / विकास पाण्डेय
मैं अस्पताल का बिस्तर हूँ,
व्यग्र-विकल, करुणाक्षी हूँ।
मृत्यु के नग्न, अकाल-नृत्य का
मूक-अचेतन साक्षी हूँ।
चमकी ज्वर से पीड़ित बच्चे
अति-विपन्नता के मारे हैं।
चिकित्सक की टकटकी लगाए
परिजन तो विवश, बेचारे हैं।
मैं देख रहा, माताएँ स्वयं
मुन्ने के दु: ख को झेल रहीं।
अपनी ममता के बल से
मृत्यु को पीछे ठेल रहीं।
यह कैसा ज्वर! हे भगवन!
कि ताप कम नहीं होता है।
चुप रह मुन्ने! मजबूत बनो
क्यों कायर जैसा रोता है।
घड़ी-दो घड़ी, चार घड़ी,
अब धैर्य का धागा टूट गया।
ममत्व-नीर माँ की आँखों से
धारा बन कर फूट गया।
किसकी जय बोलें लोग यहाँ
कि दवा समय पर आ जाए।
दिल्ली बहरी, पटना गूंगा
ये बेबस लोग कहाँ जाएँ!
कब बहरे कान खड़े होते हैं
दुर्बल की चीत्कारों से!
मृत्यु टला नहीं करती
नेताओं की जयकारों से।
टूट रही हैं सांसे, साथ ही
टूट रहीं हैं आशाएँ।
जनसेवा के शपथ की, देखो
बदल रही परिभाषाएँ।
बार-बार यह करुण दृश्य,
मेरी छाती पर घटता है।
नन्हा बिरवा मुरझाता है
और सीना मेरा फटता है।
मैं अस्पताल का बिस्तर हूँ,
व्यग्र, विकल, करूणाक्षी हूँ।
मृत्यु के नग्न, अकाल-नृत्य का,
मूक-अचेतन साक्षी हूँ।