अस्पताल की वह स्त्री / अनुभूति गुप्ता
चौथा महीना
चल रहा था
माँ बनने वाली थी,
वह स्त्री।
उसके ससुराल में
खुशियाँ मन रही थीं
मिठाइयाँ बँट रही थीं।
जैसे
चारो दिशाएँ
उत्सव मना रही हो
हवाएँ वातावरण में
चन्दन उंड़ेल रही हों।
फिर
उस दिन
वह स्त्री लायी गयी थी
महँगे अस्पताल में,
उसकी सास लेकर आयी थी
वहाँ उसे।
घबराहट से
हाथ-पैर
फूलने लगे थे उसके,
अस्पताल के
हर-एक वार्ड को
एकाग्र होकर
देख रही थी, वह।
जैसे
किसी नयी जगह पर आकर
एक छोटा-सा बच्चा
पूरी जगह का
मुआइना करता है।
वैसे ही
आते-जाते लोगों की
क्रियाएं देख रही थी, वह स्त्री ।
शायद,
कुछ भयानक
घटने वाला था।
उस दिन,
सूरज कुछ
मुरझाया-मुरझाया सा,
बादलों के बीच अधमरा पड़ा था।
हवाएँ गहरे बोझ में थीं।
बंेच पर बैठी
अपने नम्बर का
इंतजार कर रही थी, वह स्त्री ।
अचानक-
खिड़की से अन्दर आती
साँय-साँय की ध्वनि ने
उसका ध्यान
अपनी ओर खींच लिया।
वहाँ से झाँका जब उस ने
तो पाया कि
एक नन्हीं-सी
बच्ची खेल रही थी बाहर,
पिंक कलर का
फ्रॉक पहने हुए।
एकटक देखती रही
उस बच्ची की
मासूमयित को, वह स्त्री।
एकाएक,
एक कर्कश आवाज़ ने
उसका ध्यान भटका दिया
उसकी सास
इतराते हुए बोली-
बहू तुम्हारा नम्बर
आ गया है
कोख में पल रहे
बच्चे का लिंग जाँच करवाने को।
मुझे लड़का ही चाहिए,
अपना वंश आगे बढ़ाने को।
असमंजस में
अन्दर ही अन्दर
घुट रही थी, वह स्त्री।
जब दुबारा
उसने खिड़की से बाहर देखा
तो वह
नन्हीं बच्ची
वहाँ से गायब पायी।
हड़बड़ाते हुए
उसने
अपनी सास से कहा-
माँ, वह बच्ची कहाँ गयी
जो मेरे मन को थी भायी
परन्तु,
इस बात पर
सास को आया गुस्सा
और वह तिलमिलाहट से बोली-
कैसी बच्ची,
कौन-सी बच्ची
मुझे लड़की नहीं
लड़का ही चाहिए।
मैं प्रभु से मिन्नतंे कर के आयी हूँ
बहू की गोद
लड़के से ही
हरी-भरी कीजिए।
सबकुछ चुपचाप सह रही थी,
तभी तक
जब तक
अपनी सन्तान को
सुरक्षित हाथों मंे
पा रही थी, वह स्त्री।
फिर,
निस्संकोच निर्भीक होकर
वह बोली-
मैं लिंग जाँच नहीं करवाऊँगी।
अगर लड़की होगी
तो उसे भी
स्नेह से अपनाऊँगी।
ऐसी विकट परिस्थिति में,
सब्र के बाँध का टूटना
बेहद जरूरी होता है,
कुछ सवालों के
जवाब मिल जाते हैं।
’ना’ कहने के लिए भी
काफी हिम्मत चाहिए
जो वह स्त्री,
ममता के
नम गलियारों में
उतरकर पा चुकी थी।