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अस्वीकृति का बोध / शिवबहादुर सिंह भदौरिया

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सड़क के किनारे
एक सूखा जलाशय
जिसके बीच में खड़ा है
आम का
पेड़।
जड़ें
आधी खुल गईं
आधी सहती हैं आँधी का
उद्दाम क्रोध,
खाती है कोड़े जल के,
पत्ते-पत्ते विदा-नेत्र
भूलते नहीं सपने कलके,
अनियन्त्रित स्मृतियों की टकराहट
खिन्न कर्ण सुनते...आहट
जैसे कोई आये
धर्म-पदच्युत, अयथार्थ
अपहृत, संज्ञाधारी
व्यवहृत या
अस्वीकृत को-
साथ ले चले।