अहं राष्ट्रीय संगमनी जनानाम् / अज्ञेय
सवेरे आये बाम्हन
जो जैसे ही जागे कि नहाये
नहाते ही भूख से कुनमुनाये
भूख लगते ही सब को देने लगे
दान और श्रद्धा का उपदेश।
जो अघा कर खा कर घर आ कर (या लाये जा कर)
चैन से लेंगे डकार।
नहीं, जो डकार भी नहीं लेंगे।
(वामन ने तीन डग में त्रिलोक नाप लिया था,
ऊँचे-पूरे बाम्हन की एक ही डकार से,
मच गया कहीं ब्रह्मांड में हाहाकार?)
दोपहरे आये जाट :
जिन के मचलते ही ख़ुदा को ले जावें चोर।
(क्या इसी तरह राज्य में निभती है धर्म-निरपेक्षता?)
बाकी रहे हम-सीनाज़ोर।
सेपहर पधारे कायस्थ :
राज्य की काया में बरसों से बसे हुए
हर मामला फँसाने के काम में बेतरह फँसे हुए।
कायथ : जो भला तो किसी का करेंगे कैसे,
पर बुरा नहीं करेंगे, इस के मिलेंगे कितने पैसे?
साँझ में आये बनिये और अहीर :
कोई अंटी में खोंसते नावाँ, काढ़ते हुए खीसें,
कोई लाठी में चुपड़ते तेल,
कोई हाँकते भैंस, कोई आँकते भैंस वाले का मोल,
कोई जो खुल कर दूध में पानी मिलाता
क्यों कि डीपोवाले को मस्का लगाता है,
कोई जिसे छाती पर मूँग दलना भाता है,
कोई जिसे सिर्फ़ ख़ून पीना आता है,
अपने-अपने काम का अपना-अपना तरीक़ा होता है।
राज में रहने, समाज में जीने, राजनीति में जमने का
एक सलीका होता है।
मौलाना रोज़े से थे : आये नहीं।
सरदारजी तैश में थे : किसी ने मनाये नहीं।
मसीही आयें तो, पर करेंगे क्या,
जब हिन्दी ही कोई पढ़ाये नहीं?
रात में भी कोई आये, घुप अँधेरे में :
कौन, यह बता नहीं गये।
पूछने पर कुछ लजा या सकपका गये
मानो जान लूँगा तो-
तो न जाने क्या ठान लूँगा-
उन्हें कुछ भी मान लूँगा-चोर, दुश्मन, आवारे,
बनजारे, घसियारे-
संक्षेप में-खुले में मुँह न दिखा सकने वाले बेचारे।
सहमे हुए सब, कि उन की जान लूँ न लूँ
इनसानियत ज़रूर नकार दूँगा।
यों सब आ गये। मेला जुट गया।
यही मैं नहीं जान पाया कि इस पचमेल भीड़ में
वह एक समाज कहाँ छूट गया?
और जिस में पहचाना था देश का चेहरा
वह आईना कहाँ लुट गया?
जाट रे जाट तेरे सिर पर खाट
परजातन्तर की!
खैर, यह बोझ तो जैसे-तैसे ढो लिया जाएगा-
कभी खाट ऊपर तो कभी जाट ऊपर,
यों बोझा न मान, उसे बेचने से पहले
उस पर थोड़ा सो लिया जाएगा।
(बाद में तो घोड़ा बेच कर सोते हैं।
पर वह नसीब इस जन नाम गधे को मिला कब!)
देस रे देस तेरे सिर पर कोल्हू।
इस का भार तू कैसे ढोएगा
जिसे पेरेंगे जाट, बाम्हन, बनिया, तेली, खत्री,
मौलवी, कायथ, मसीही, जाटव, सरदार, भूमिहार, अहीर
और वे सारे घेरे के बाहर के बेचारे
जो नहीं पहचानते अपनी तक़दीर :
तू किस-किस को रोएगा?
कब बनेगा तो राष्ट्र
कब तू अपनी नियति को पकड़ पा कर
तकिया लगा कर सोएगा?
नयी दिल्ली, जून, 1968