अहम और वहम का खेल / अशेष श्रीवास्तव
अहम और वहम का खेल
भी बहुत ही निराला है
अपना कभी मिटा नहीं पाते
औरों का कभी सह नहीं पाते...
सुख देती है ख़ुद की प्रशंसा
और दूसरे की आलोचना
औरों की प्रशंसा कर नहीं पाते
ख़ुद की आलोचना सुन नहीं पाते...
तरक्की तो सभी चाहते हैं
मगर सिर्फ़ अपनी ही
खुद कभी कोशिश करते नहीं
औरों की कभी देख नहीं पाते...
सच सुनना सभी चाहते हैं पर
खुद का अच्छा औरों का बुरा
अपना बुरा कह नहीं पाते
औरों का अच्छा सुन नहीं पाते...
अधिकार सभी चाहते हैं
कर्तव्य लेकिन कोई नहीं
औरों का अधिकार पसंद नहीं
खुद कर्तव्य कर नहीं पाते...
ख़ुद का सम्मान सभी चाहते हैं
पर चूकते नहीं अपमानित करना
औरों को सम्मान दे ना पाते
खुद का अपमान सह ना पाते...
बोलने और सुनने का खेल
भी बहुत ही निराला है
ख़ुद बेतुका बोल थकते नहीं
काम की बात सुन नहीं पाते...
अकर्मण्यता ही अपनी होती है
बुरी हालत की ज़िम्मेदार
दोष देते रहते हैं क़िस्मत को
मेहनत ख़ुद कर नहीं पाते...
हमेशा रोते रहते हैं हमें कोई
पूछता नहीं याद करता नहीं
औरों की ज़रूरत में उन्हें हम
न याद कर पाते न पूछ पाते...
सदा कड़ी नज़र लगाये रहते
औरों की हर बुराइयों पर
कभी मगर ख़ुद की बुराइयाँ
न देख पाते न दूर कर पाते...