अहा! वह रात्रि मधुर / कविता भट्ट
अहा! वह रात्रि मधुर
सदियों उपरान्त
जब एक सरल स्त्री ने
सुना- एक सहज पुरुष को
उन्मुक्त, उन्मुख, उद्वेलित;
जबकि युगाब्द से
था उसे विस्मृत
कि वह भी तो है जीवित
आज हिलोरें ले रही थी
उसके भीतर
प्रशान्त की हलचल
मन हिरण चंचल
सहज धरा जो धरा पर पग
प्रफुल्ल अग- जग- अनघ
भरे कुछ डग, डग- मग
यह कौन सह-पथिक
लौह ज्यों चुम्बक
अति आकर्षक
बैठा सम्मुख
झुकाकर सुंदर मुख
चपल नैन, धरे मंद स्मित
भाव प्रखर मुखर
धर ओष्ठ अधर
अहा! वह रात्रि मधुर
स्वप्न बुनती वह रात्रि मधुर
हुआ सागर पहाड़ी निर्झर
संयुक्त संगीत मधुमिश्रित
निर्भीक, उन्मत्त, उद्वेलित
लहरों सा चंचल
किंतु जलनिधि सा गम्भीर
प्रशान्त का पुण्य फलित
मधुरात्रि मधुप्रहर में
मुखरित मौन सा सस्वर
सुरभित स्वप्न शृंखला
के यथार्थ सा गुंजायमान
धरे अधर चुम्बन
असीम अनन्त स्पंदन
तप्त हिय पर झरा- जो घन बन
जीवन सुरभित चंदन
आत्म ध्वनि का अनुगुंजन
अहा! वह रात्रि मधुर
रुचिरंग मधुरस सरस संकल्पित
सप्तस्वर संकुचित
कुछ कल्पित
रोम - रोम झंकृत
कम्पन प्रस्फुटित
समुद्री पादप सा अंकुरित
दसदिश शाखित
धरे आलिंगन नैन द्रवित
पुनः पुनः वह प्रणय निवेदित
आएगी क्या हो पल्लवित
जीवन के हैं द्वार सशंकित
लौटेगी क्या पुनः प्रिय
अहा! वह रात्रि मधुर