भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आँखें तो ढूँढती रहीं सपन-सपन-सपन / विनोद तिवारी
Kavita Kosh से
आँखें तो ढूँढती रहीं सपन-सपन-सपन
साँसों में किन्तु भर गई अगन-अगन-अगन
दिन गिरता पड़ता हाँफता बस भागता गया
और शाम चीखती रही किरन-किरन-किरन
जब था ये सारा गाँव परेशान बदहवास
कुछ लोग खड़े थे वहाँ मगन-मगन-मगन
बस एक टुकड़ा छाँव मयस्सर न हो सकी
मन में जलन है, तन में है थकन-थकन-थकन
दो ही सवाल थे कि उमर हो गई तमाम
इक भूख-भूख दूसरा क़फ़न-क़फ़न-क़फ़न
आओ कि अब तो अपनी मशालें जला ही लें
वे भी तो काँप कर कहें अमन-अमन -अमन