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आँखें तो हैं / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

आँखें तो हैं, न मगर इस्तेमाल है!
ख़ुद कि नज़र से देखना ख़ुद को मुहाल है!

उसने तुझे न जाना, जो जाने है नाम से,
तू पैकरे जमाल, जलालो-ज़लाल है!

पीरे मुगाँ भी ख़ूब, ख़ूब उसकी मैकशी,
होठों प’ कोई नाम औ’ सर पर रुमाल है!

जीने का तौर किसलिये ज़ेरे ख्याल था,
जीने का सिलसिला अभी ज़ेरे ख्याल है!

‘सिन्दूर’ चश्मे नम में तबस्सुम भी है निहाँ,
शबनम की मुट्ठियों में शफ़क़ का गुलाल है!