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आँखें हूँ अगर मैं, तो मेरा तू ही ख़्वाब है / कुँवर बेचैन
Kavita Kosh से
आँखें हूँ अगर मैं, तो मेरा तू ही ख़्वाब है
मैं प्रश्न अगर हूँ, तो मेरा तू ज़वाब है।
मैं क्यूँ न पढूं रोज़ नई चाह से तुझे
तू घर में मेरे एक भजन की किताब है।
खुश्बू भी, तेरा रंग भी मुझमें भरा हुआ
तू दिल की नई शाख़ पे पहला गुलाब है।
देखा जो तुझे, तुझपे ही नज़रें टिकी रहीं
तू हुस्न की दुनिया में नया इंक़लाब है।
चेहरे से ज़रा पर्दा हटा, तो लगा कि तू
मावस की घनी रात में भी माहताब है।
अमृत ही तिरीआँखों से छलके है हर घड़ी
नश्शा है मगर ऐसा, कि जैसे शराब है।