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आँखों में पड़े छाले, छालों से बहा पानी / सूर्यभानु गुप्त

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आँखों में पड़े छाले, छालों से बहा पानी,
इस दौर के सहरा में, ढूँढ़े न मिला पानी।

दुनिया ने कसौटी पर, ता उम्र कसा पानी,
बनवास से लौटा तो शोलों पे चला पानी।

शोलों से गुज़र कर भी सूली पे टँगा पानी,
बनवास से आकर फिर बनवास गया पानी।

गुज़रे हुए पुरखों को जिसने भी दिया पानी,
उस शख़्स के हथों का मश्कूर हुआ पानी।

पर्वत के ज़ुबां फूटी, इक शोर उठा, पानी!
मन्ज़र पे बना मन्ज़र, पानी पे गिरा पानी।

आकाश फटा ऐसा धरती ने भरा पानी,
बरखा ने हदें तोड़ीं, पानी पे चढ़ा पानी।

सागर से बग़ावत पर जब ज़िद पे अड़ा पानी,
उस वक़्त सुनामी के पैकर में ढला पानी।

लोगों ने कभी ऐसा, देखा न सुना पानी,
पानी में बही बस्ती, बस्ती में बहा पानी।

सागर की जगह घेरी पत्थर के मकानों ने,
बारिश में नहीं अपने आपे में रहा पानी।

सैलाब ने हर घर की सूरत ही बदल डाली,
रुकने को किसी घर में, पल भर न रुका पानी।

दरिया से जुदा होकर बाज़ार में आ पहुँचा,
बादल न जो बन पाया बोतल में बिका पानी।

मन्दिर हो कि मस्जिद हो, गिरिजा हो कि गुरुद्वारा,
आजाद़ रहे जब तक, लगता है भला पानी।

बन्दे से ख़ुदा बनते, देखा है उन्हें हमने,
जो लोग कराते हैं, पानी से जुदा पानी।

लेने लगी फूलों से अब काम बमों का भी,
इस दर्जा सियासत की आँखों का मरा पानी।

तहज़ीब की आँखों से दिन-रात लहू छलका,
पत्थर की हवेली में यूँ लुटता रहा पानी।

देखा है जिन आँखों ने जलते हुए जंगल को,
रहता है उन आँखों में, हर वक्त़ हरा पानी।

ऐ दश्ते-जुनूं तेरे सूखे हुए काँटों पर,
हमने तो लहू छिड़का, दुनिया ने कहा पानी।

बेआब न थे इतने हम दौरे-ग़ुलामी में,
बतलाए कोई जोषी किस देश गया पानी।

संसार में पानी से महरूम रहे प्यासे,
कमज़र्फ़ों के क़ब्ज़े में हर युग में रहा पानी।

हर सिम्त मुक़ाबिल थीं बस धूप की तलवारें,
पर आख़िरी क़तरे तक सहरा में लड़ा पानी।

ख़ामोशी से हर युग में सूली पे चढ़े हँसकर,
अल्लाह के बंदों का देता है पता पानी।

देखा न कोई प्यासा फिर इब्ने अली जैसा,
और प्यास भी कुछ कि ऐसी क़ुर्बान गया पानी।

जब प्यास अँधेरों के घर बैठ गई जाकर,
जलते हैं दीये जैसे सहरा में जला पानी।

आ जाए है पानी पे चलने का हुनर जिसको,
मूसा की तरह उसको देता है जगा पानी।

दुनिया में नहीं मुमकिन पानी के बिना जीना,
दुनिया के लिए जैसे हो माँ की दुआ पानी।

पानी न मिला जिस दिन रोएगी लहू दुनिया,
हर सिम्त से उट्ठेगी बस एक सदा पानी।

अब जंग अगर होगी, पानी के लिए होगी,
हर शख़्स से माँगेगा अब ख़ूनबहा पानी।

उस पार हर इक युग में महीवाल का डेरा था,
कच्चा था घड़ा जिसका काटे न कटा पानी।

हर लफ़्ज़ का मानी से रिश्ता है बहुत गहरा,
हमने तो लिखा बादल और उसने पढ़ा पानी।

दस्तक दी दरे-दिल पर बरसात के मौसम ने,
दो शख़्स मिले ऐसे जैसे कि हवा-पानी।

अँगनाई से तन-मन तक कुछ भी न बचा कोरा,
इस बार के सावन में य़ूँ जम के गिरा पानी।

हम जब भी मिले उससे, हर बार हुए ताज़ा,
बहते हुए दरिया में हर पल है नया पानी।

वीरान हम इतने थे, जंगल न कोई होगा,
इक शाम पहनने को यादों ने बुना पानी।

घर छोड़के निकलें तो संसार के काम आएँ,
कब धूप को पहने बिन बनता है घटा पानी।

इस दुनिया में रहकर भी दुनिया में नहीं रहना,
जिस दिन ये हुनर आया, तारीख़ बना पानी।

लोगों को महाभारत देता है यही इब्रत,
जो हक़ पे चला उसका दुनिया में रहा पानी।

क़द्रों के लिए जीना, क़द्रों के लिए मरना,
रखता है वक़ार अपना सहरा में सदा पानी।

इक मोम के चोले में धागे का सफ़र दुनिया,
अपने ही गले लग कर रोने की सज़ा पानी।

जन्नत थी मगर हमको झुक कर न उठानी थी,
काँधों पे रहा चेहरा, चेहरे पे रहा पानी।

इक हूक-सी उट्ठे है धरती के कलेजे से,
बेटे-सा हुआ जब भी धरती से जुदा पानी।

जिस दिन मैं गुज़र जाऊँ दरिया में बहा देना,
मिट्टी की पसंदीदा पोशाक सदा पानी।

हर एक सिकन्दर का अन्जाम यही देखा,
मिट्टी में मिली मिट्टी, पानी में मिला पानी।