आँख लड़ते ही हुआ इश्क़ का आज़ार मुझे / जलील मानिकपुरी
आँख लड़ते ही हुआ इश्क़ का आज़ार<ref>रोग,विपत्ति</ref> मुझे ।
चश्म<ref>आँख</ref> बीमार तिरी कर गई बीमार मुझे ।
दिल को ज़ख़्मी तो वह करते हैं मगर हैरत है,
नज़र आती नहीं चलती हुई तलवार मुझे ।
देखिए जान पे गिरती है कि दिल पर बिजली,
दूर से ताक रही है निगाह-ए-यार<ref>प्रेमी / प्रेमिका की नज़र</ref> मुझे ।
गरचे सौ बार इन आँखों से तुझे देखा है,
मगर अब तक है वही हसरते-दीदार<ref>दर्शन की अभिलाषा</ref> मुझे ।
मुझको परवा नहीं नासेह<ref>उपदेशक,नसीहत करने वाला</ref> तेरी ग़मख़्वारी<ref>दुःख बाँटना, सहानुभूति</ref> की,
ग़म सलामत रहे काफ़ी है यह ग़मख़्वार<ref>सहानुभूति रखने वाला</ref> मुझे ।
शीशा-ओ-जाम<ref>काँच की सुराही और मदिरा पात्र</ref> पे साक़ी कोई इल्ज़ाम नहीं,
तेरी आँखें किये देती हैं गुनहगार<ref>दोषी (यहाँ अभिप्राय नशा एवं उन्माद के अपराध से है अर्थात आँखों को मादक कहा गया है)</ref> मुझे ।
यार साक़ी<ref>मदिरा पिलाने वाला</ref> हो तो चलता है अभी दौर 'जलील'
कौन कहता है कि पीने से है इनकार मुझे ।