आँगन में दीवा मुरझाया ’
इस ओर एक आँगन में दीवा मुरझाया।
उस ओर किसी के द्वार दीवाली लहराई।।
मिल गए धूल में, फूल बग़ीचे के सारे।
शाख़ों पर हाहाकार गगन को चूम गया।।
फिर भी माली के नयन उनींदे बने रहे।
शायद स्वप्नों में किसी रूप पर झूम गया।।
लुट गए ख़ज़ाने उधर कहीं मधुशाला में।
बिन चूनर उघरी रही किसी की तरुणाई।। 1।।
हो गई भोर, गौरैया छत पर चहक उठी।
‘धनिया’ को लगा कि सुई चुभ गई सीने में।।
कब हुई दुपहरी, शाम ढली, कब रात हुई।
ढल गया जागरण सकल अटूट पसीने में।।
बन गया एक की फ़रमाइश पर ताजमहल।
बिन कफ़न हज़ारों लाश गईं जब दफ़नाई।। 2।।,
भरभरा उठी अंतड़ियों में सोई ज्वाला।
सामर्थ्य खड़ी दो टूक कह गई ‘मजबूरी’।।
थक गए पाँव अनवरत पंथ चलते-चलते।
मंज़िल की फिर भी बढ़ती जाती है दूरी।।
बन गया धाम नभ में कुबेर का, इसीलिए-
हो सकी न मेरे द्वार यथोचित पहुनाई।। 3।।
-28 फरवरी, 1964
‘नागरिक’ व ‘अमर जगत’ दीपावली विशेषांक में प्रकाशित