भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आँत करे उत्पात / अनामिका सिंह 'अना'
Kavita Kosh से
रिक्त उदर में जले अँगीठी,
आँत करे उत्पात ।
हर कातर स्वर करे अनसुना
विकट पूस की रात
कौन्तेय को लघुतर करने
खींचें खड़ी लकीर ।
दानवीर कम्बल वितरित कर,
खिंचवाएँ तस्वीर ।
आँगन में है कुहरा, घर में
औंधी पड़ी परात ।
प्यास न अधरों की बुझ पाई,
भरा नयन में नीर ।
खरपतवार उगे हैं जब भी,
रोपी आस उशीर ।
नीति पिण्ड भी नित नव रह-रह,
करते उल्कापात ।
आश्वासन ही आश्वासन पर,
देख रहा गणतंत्र ।
हाकिम फूँकें लालकिले से,
विफल हुए वे मंत्र ।
वादों की नंगी तकली पर,
सूत रहे हैं कात ।