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आँसुओं की नगरी से लाया हूँ मैं सौग़ातें / ज़ाहिद अबरोल
Kavita Kosh से
आंसुओं की नगरी से, लाया हूं मैं सौग़ातें
कुछ सियाह दिन और कुछ उजली उजली सी रातें
क़ल्ब-ओ-जां हैं गहनाएं, ज़िहन भी मुक़य्यद हैं
कहने को तो करते हैं, अब भी हम खुली बातें
अपने अपने अंदर ही, जो सिमट के बैठे हैं
उनको क्यूं समझ आयें, मेरी सरफिरी बातें
सोचता हूं रोने से, होगी ग़म की रूस्वाई
क्यूं न दिल में दफ़ना दूं, ग़मगुसार बरसातें
दर्द-ओ-ग़म का चारः थीं, यास का मुदावा थीं
अब तो नाम ही को बस, रह गईं मुलाक़ातें
जब भी ज़िहन में “ज़ाहिद”, आफ़ताब उगता है
करवटें बदलती हैं, दिल में चांदनी रातें
शब्दार्थ
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