आँसुओं की ब्रेल लिपि / कमलेश कमल
वक्त के रेल की मेरी हम-राह,
सुनो!
बेशक़ रहो मशगूल
अपनी मनमर्जियों के साथ!
बिछाती रहो जिम्मेदारियों का
ओढ़ना-बिछौना
और बजाती रहो समझदारी का
अपना बड़ा-सा झुनझुना!
पर, रखना ख़्याल
कि भहराकर न गिरें
ख़्वाबों के घरौंदे
न हो भीषण दरारें
भावों की भीत में!
शब्दों पर करना ग़ौर
ताकि न दबे
आतिशी शोर में
अर्थों की आत्मा!
और, रखना गुंज़ाइश
कि मन के रेशम में न पड़ें
संप्रेषण की सिलवटें!
छू सको तो छूना मेरा हाथ
ताकि दौड़ सके बिजलियाँ
हृदय के सुन्न तारों में!
सुन सको, तो सुनना मेरी सिसकियाँ
ताकि उतर सके मिन्नतें
कानों की सीढ़ियाँ!
जो सूँघ सको तो सूँघ लेना
आमों के बौर में
छिपी हुई उस गंध को!
साथ ही, रखना ऐसी दृष्टि
जो गुलमोहर में देख सके
वे सारे अरमान!
और, जो न कर सको कुछ भी
तो, कोशिश करना पढ़ने की
मेरे दुःख के किताब में टाँकी
आँसुओं की ब्रेल लिपि!