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आँसुओं की सुमिरनी / मालचंद तिवाड़ी
Kavita Kosh से
दिन ?
यह मैंने फेंकी
सिरहाने से निकाल
आकाश में किरणों की गेंद
यह किरणों का सूत
नित्यप्रति सुलझाता हूं मैं
कि किसी तंतु को तान
कभी तो पहुंचूंगा तुम्हारे द्वार
मैं थक कर
सूत सिरहाने रखता हूं
और रात हो जाती है
पतरा ?
टपकता है हर बरस
स्मृति की आँख से एक आँसू
आँसुओं की सुमिरनी
यह मेरी कविता !
अनुवाद : स्वयं कवि द्वारा