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आँसू का क्रन्दन / चन्द्रनाथ मिश्र ‘अमर’

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कोसी की उद्दाम लहर पर
खेल रहे लाखों के जीवन
धारा के कल - कल गर्जन पर
छल - छल हैं आँसू के क्रन्दन
दल - दल में हैं फँसे मनुज के
पाँव, मनुजता अकुलाती है
आशा डूब चली पानी में
और निराशा बल खाती है
मानव का जीवन पल भर में
देखो कैसे भार बन गया
जहाँ हजारों बसते थे, वह
गाँव नदी की धार बन गया
होठों की मुसकान सिमट कर
बनी विषादमयी रेखा है
साथी! मैंने तो आँखों से
कोशी का अंचल देखा है
सन - सन - सन - पुरवैया चलती
धरा तट से टकराती है
ढहते कूल, बदलता नक्शा
वहाँ व्यथा भी शर्माती है
कोसी का परिचय मत पूछो
विश्वामित्र सगा भाई है
उसने सृष्टि नई की थी, यह
सृष्टि नाश करने आई है
धीरजवान कहाते हो तो
इसका नंगा नाच देख लो
अपने अन्तर के साहस की
सच्ची सच्ची जाँच देख लो
विषधर सब फूत्कार रहे हैं
और कलेजा कांप रहे है
पड़ा मृत्यु-शय्या पर कोई
जीवन - पथ को माप रहा है
किसकी सुनता कौन, विपद का
शंख - नाद होता घर घर है
जर्जर है घर - द्वार मनुज का
तार - तार बिलकुल जर्जर है
घड़ी - घड़ी पर यहाँ मृत्यु का
होता रहता है अभिनन्दन
धारा के कल - कल गर्जन पर
छल-छल हैं आँसू के क्रन्दन