भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आँसू वन्दनवार / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
तुम आए, बोझिल पलकों के
आँसू वन्दनवार हो गए
रूप-राशि दर्पण भर आँगन
दोनों एकाकार हो गए
अधराधर सी गए, झुके दृग
कैसे करें पीर अगवानी
कल जो प्यास गगन छूती थी
आज हो गई पानी-पानी
उपालम्भ से भरे, अधलिखे
छन्द मंगलाचार हो गए
कुटिया शीशमहल-सी दमकी
जगह-जगह भुजबन्धन झूले
समय-- लगा स्नेह का गुणनफल
तन झूमा मन की ख़ुशबू ले
मेरी निर्धनता को तेरे
बाजू नौलखा हार हो गए