भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आई ती ते भिस्ती जनी जगत देखके रोई / मीराबाई

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आई ती ते भिस्ती जनी जगत देखके रोई।
मातापिता भाईबंद सात नही कोई।
मेरो मन रामनाम दुजा नही कोई॥ध्रु०॥
साधु संग बैठे लोक लाज खोई। अब तो बात फैल गई।
जानत है सब कोई॥१॥
आवचन जल छीक छीक प्रेम बोल भई। अब तो मै फल भई।
आमरूत फल भई॥२॥
शंख चक्र गदा पद्म गला। बैजयंती माल सोई।
मीरा कहे नीर लागो होनियोसी हो भई॥३॥