आउ हमर हे राम प्रवासी / कालीकान्त झा ‘बूच’
आउ हमर हे राम प्रवासी
व्या.कुल जनक, विह्वला जननी,
पड़ल अवधपर अधिक उदासी
आउ हमर हे राम प्रवासी
धिक् धिक् जीवन दीन, अहाँ बिनु
बीतल बर्ख मुँदा जीवै छी
जीर्ण-शीर्ण मोनक गुदड़ीकेँ
स्वाणर्थक सूइ भोँकि सीबै छी
निष्ठुथर पिता पड़ल छथि घरमे
कोमल पुत्र विकल वनवासी
आउ, हमर हे राम, प्रवासी
दुर्दिन कैकेयी बनि कऽ
हे तात, अहाँकेँ विपिन पठौलनि
जाहि चार तर ठार छलहुँ
तकरापर दुर्वह भार खसौलनि
गृह विहीन बनलहुँ अनाथ हा,
हमर अभाग, मंथरा-दासी
आउ, आउ हे राम, प्रवासी
सोनक लंकापर विजयी भऽ
सीता संग कखन घर आएब
बीतल विपिनक अवधि, अपन
अधिकार कहू कहिया धरि पएब
परिजन सकल भोग भोगथि आ-
अहाँ बनल तपसी-सन्यासी
आउ, आउ, हे राम, प्रवासी
भरत अहाँ विनु पर्णकुटीमे
कुश आसनपर कानि रहल छथि
अहँक पादुकाकेँ अवधक-
ऐश्व र्योसँ अधि मानि रहल छथि
थाकल चरण चापि रगड़ब-
पदतल, बैसब पौथानक पासी
आउ, आउ हे राम, प्रवासी