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आऊँगा फिर लौट के धान सीढ़ी के तट पे - इसी बंगाल में / जीवनानंद दास / मीता दास

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आऊँगा फिर लौट के धान-सीढ़ी के तट पे — इसी बँगाल में
या तो मैं मनुष्य या शँख चील या मैना के वेश में :
या तो भोर का काग बनकर आऊँगा एक दिन कटहल की छाँव में;
या तो मैं हंस बनूँ या किशोरी के घूँघर बन रहूँगा लाल पैरों में;
सारा दिन कट जाएगा कलमी की सुगन्ध भरे जल में तैरते हुए;
मैं लौट आऊँगा फिर बाँग्ला की मिट्टी, नदी, मैदान, खेत के मोह में
जलाँगी नदी की लहरों से भीगे बाँग्ला और हरे-भरे करुण कगार में;

दिखेगी जब शाम के आकाश में सुन्दर उड़ान लिए हवा
सुनाई देगा तब एक लक्ष्मी का उल्लू बोल रहा है सेमल की डाल में;
शायद धान की लाई उड़ा रहा एक शिशु आँगन की घास में;
रुपसा के गन्दले जल में हो सकता है
एक किशोर फटे सफ़ेद पाल की डोंगी बहाता तो,
... लालिमा लिए मेघ भी तैरता हुआ अन्धेरे में ही लौटता हो नीड़ में
देखोगे जब एक धवल बगुले को; पाओगे तुम मुझे उन्हीं की भीड़ में...।