भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आओ छत पर दीप लेकर / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
फिर वही संध्या घिरी है
रात होगी
आओ, छत पर हम खड़े हों दीप लेकर
दूर क्षितिजों से उमड़कर
घुप अँधेरे आ रहे हैं
संग अपने जुगनुओं की
भीड़ भी वे ला रहे हैं
वक़्त यह बीहड़
हवाएँ अजनबी हैं
कहीं सपने खो न जाएँ - है यही डर
गए बच्चे यात्रा पर -
उन्हें भी तो लौटना है
एक जादू का महल भी
बीच-जंगल में बना है
वहीं पर तो
हाँ, छली पगडंडियाँ हैं
धुएँ भी दिख रहे जंगल के सिरे पर
यह हमारा दीप पूर्वज है
दमकते कुमकुमों का
इसी ने है तेज सिरजा
सूर्य-अश्वों के सुमों का
और अंतिम साँस तक
यह ही दिखाएगा
रास्ता उनको - रहे जो जन्म से बेघर