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आओ मेरे राम! / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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मैं हूँ वृक्ष, परम चेतन
पर जड़ता छूट न पायी,
सघन मोह ममता की
डोरी मुझसे टूट न पायी।

इसी जाल के बीच चेतना
मेरी फँसी हुयी है,
हाय! धरा के अधियारे
अन्तस में धँसी हुयी है।

रहा देखता सब कुछ
फिर भी विवश न कुछ कर पाया,
मैं रसाल होकर
जीवन रस सक न रंच भर पाया।

मैंने देखे दिवस
हाय! तुमने वनवास किया था,
छोंड़ महल तृण की
कुटिया को निज आवास किया था।

कोमल कान्त मसृण
शुचि आसन त्याग दर्भ अपनाया,
अरे राम ! तुमने
जीवन में कितना कष्ट उठाया।

घोर विसंगतियों से पूरित
रहा तुम्हारा जीवन,
सबको दिया, न खुद कुछ पाया
रसमय जीवन का धन।

जब तक धरती, गगन, चन्द्र, रवि,
गंगा, यमुना धारा
तब तक शुभ आलोक
लोक को देगा सुयश तुम्हारा।

आर्य संस्कृत के प्रदीप
आलोकित सदा रहोगे,
दोनों के उर में सदैव ही
पवन शन्ति भरोगे।

द्वादश वर्ष अवधपति के
मेरी छाया में बीते,
सबको सबकुछ देने वाले
रहे सदा ही रीते।

माँ जानकी और लक्ष्मण
सहचर में तत्पर,
अमर हो गये त्यागमूर्ति
को पाकर सर्व त्यागकर।

चरण कमल में रहे
शीश जो अपना सदा झुकाये,
योगी यती कहो उनकी
स्मता कैसे कर पाये?

सुख-दुख-हर्ष-विषाद
अकेले कभी नहीं जाने है,
स्नेह समर्पण और त्याग
के शिखर लोक माने है।

ठीक-ठीक है कौन
समझ पाया उन लायक को?
घाव लखन के ओर
हुई है पीडा़ रघुनायक को।

भुवनेश्वर श्री राम और
सीता मेरी छाया में,
बैठे देख विरक्ति
जग रही थी मन की माया में।

सिमट चेतना पूर्ण
राम के आनन पे ठहरी थी,
परमानन्द चन्द्रिका मेरे
उर नभ पर उभरी थी।

वह अतीव आनन्द
नहीं फिर मिला कभी जीवन में,
लीन हुए वे पुण्यवान क्षण
सघन काल उपवन मे।

वह मर्यादित हास-रास
वह सुधावर्षिणी वाणी,
हुए कृतार्थ श्रवण कर
बोले अनबोले सब प्राणी।

वह असीम माधुरी
रूप-रस-रंग अमित अनुपम था।
सतोगुणी लावण्य परम पर
मेहित जड़-जंगम था।

कर कोमलस्पर्श कलियों
के हृदय खिला करते थे,
छेड़ रामधुन मधुर
प्राण के तार हिला करते थे।

श्यामल कोमल अरूण
अलौकिक धनुष धर्म धारी की,
किसके उर में नहीं बस गयी
छवि भवभय हारी की

चरण कमल, कर कमल
कमल मुख कैसा भग्य तुम्हारा?
सोच-सांेच कर द्रवित हो रहा
अब तक हृदय हमारा।

फूलों के आभूषण
रचकर तुमने स्वयं बनायेे,
और जानकी माता को
निज हाथों से पहनाये।

याद मुझे वह दिवस
अभी तक कभी न फिर कर आया,
ऐसा मधुरिम दिवस
फिर कभी देख नहीं मैं पाया।

जाने कितने दिवस
हो गये जाने कितनी रातें,
गयीं बहारें जाने कितनी
सही युगों की घाते?

समय बीतता गया
भूलता गया सभी कुछ मन से,
किन्तु राम! तुमको न
भुला पाया अपने जीवन से।

जीवन की भाषा-परिभाषा
तुमसे ही पाया है,
दुख सहकर सुख दिया
लोक को कैसी प्रभुताई है?

किन्तु ज्ञान के श्खिार
दशानन का दुर्भाग्य जगा था।
परम तपस्वी के जीवन में
तृष्णारण्य उगा था।

अहंकार मद लोभ
निगल सब गये सकल कुल भारी,
रक्त और आँसू
बस पीती रही धरा बेचारी।

किन्तु राम की दया क्षमा
करूणा उदारता देखो
मर्यादा की दृढ़ सीमा
अक्षर पवित्रता देखो।

पग तक नहीं रखा
लंका में श्री रघुवर ने क्षणभर,
बना चुके थे त्यक्त
विभीषण को पहले लंकेश्वर।

हुआ समन्वय संस्कृतियों में
हर्ष अपार जगा था,
सिन्धु पार फिर भारतीय-
संस्कृति का ध्वज फहरा था,

किन्तु आज तो आर्य देश
का हर घर ही लंका है,
अनाचार छल दम्भ द्वेष
का गूंज रहा डंका है।

सम्बन्धों की मर्यादाएँ
घुट-घुट रह जाती है।
अपनों के ही द्वारा
आये दिन कुचली जाती है।

बढ़ती हुई सूर्पणखाओं
से सौमित्र डरे है,
छद्मवेश धारी हरिणों से
युग के विपिन भरे है,

सीताहरण हो रहे
निर्भय रावण घूम रहे है,
साधु सन्त सतियों के
द्वारे पीकर झूम रहे है।

कौन तुम्हारे बिना राम
इन सब को मार भगाये?
शान्ति सुधा का कलश
धरा, बोलो फिर कैसे पाये?

आओ राघव! इन्हे ध्वस्तकर
जन-मन निर्भय कर दो,
अपने प्रण को पूरा कर
वसुधा का मंगल वर दो।

युग के काल नेमियों ने
हैं पग-पग जाल विछायेे,
परमार्थी पवनसुत हैं
बाधाओं से घिर आये।

सबल मंथरा की माया से
त्रतित भरत बेचारे,
देवी सी कैकयी भ्रमित है
किसको कौन सुधारे?

भरत विरागी हए
आप अजन्म हुए वनवाासी
भटक रहे शत्रुघ्न
सहेजे मन में घोर उदासी।

अस्त-व्यक्त हो गया धर्म-
युग का, ठेकेदारी में,
अश्रुपात कर रही मनुजता
वेवश लाचारी में।

डूव गया है अश्रुधार में
रामराज्य निर्बल हो,
जीवन का सारल्य
भटकता गली-गली चंचल हो।

युग-युग से मैं देख रहा हूँ
नित्य नये परिवर्तन,
कभी सुखद तो कभी दुखद
झोंको ने झोरा है मन।

देख रहा हूँ सब कुछ फिर भी
मैन सहा करता हूँ
मन की पीड़ा मन से ही
चुपचाप कहा करता हूँ।

यदि होते रघुनाथ
टबोली पीड़ा को पढ़ लेते,
वैमनस्य कर ध्वस्त
समन्वय की प्रतिमा गढ़ लेते है।

फिर होता श्रंगार धरा का
वन-उपवन फिर सजते,
फिर होता निर्भय समाज
फिर बाघ शान्ति के बजते।

आओ मेरे राम!
दण्डकारण्य पुकार रहा है,
छिन्न-भिन्न ऋषियो का
तप कर हाहाकार रहा है।

विश्वामित्र सजल नयनों से
बाट निहार रहे हैं,
यज्ञ कामना लिए हृदय में
तुम्हें पुकार रहे हैं।

झुकी-झुकी शखाएँ मेरी
पंथ बुहार रही है,
नित्य शबरियाँ फूलों से
कर पथ श्रंगार रही हैं।

तुम आओ रघव!
तो वसुधा की पीड़ा का क्षय हो,
धरती पर फिर से जीवन
जगमग जग ज्योतिर्मय हो।

सीता का वह हरण,
बिलखते भरे हुए दुख मन मंे
टूक-टूक हो गया हृदय
मेरा अशोक उपवन में।

अंग-अंग से सिमट
चेतना शून्य हुई जाती थी।
कली-कली मेरे उपवन की
विरहा-सी गाती थी।

जातुधनियों के त्राषद
उपहास घात करते थे,
पत्ते-पत्ते में पीड़ा
की धारा संचरते थे।

ठीक-ठीक तब समझ सका
मैं नारी क्यों अबला है?
पराधीनता के साँचे में
जीवन ढला पला है।

जिसने जीवन के अधरों पर
मृदु मुसकान बसायी,
जिसने जड़ता के आंगन में
पावन ज्योति जगायी।

जीवन को श्रंगार दिया
रस-रास दिया जन-मन को,
मधुर भावनाओं के
स्वपनिलर रंग दिये जीवन को।

पीड़ाएँ जग की सहेज
निज अंचल में भरती है,
और सुखों के रत्नों की
हरपल वर्षा करती है।

जौ भर मान और
अपमानों के सह्यादि खडे़ हैं,
नारी! तेरे जीवन पथ पर
कितने विघ्न अड़े हैं?

करूण कथाएँ सबकी संचित
मेरे उर-अन्तर में,
नयन भिगो जाती हैं
आ जाती हैं जब भी स्वर में।

हृदय काँपने लगता
पत्ते फूल सिहर उठते हैं,
मन स्पटल पर पीड़ाओं के
श्लोक उभर उठते हैं।

सोच-सोच विधि के विधान को
विवश मौंन रह जाता,
कैसा है यह न्याय
समझ में कुछ भी कभी न आता।

अन्तस में चेतना
किन्तु जड़ता अभिशाप बनी है,
वंश बेल इससे मेरी
सुख-दुख से रही सनी है,

किन्तु मुझे अपनी पीड़ा
कहने का मिला न अवसर,
डूवा रहा लोक पीड़ा
में ही अपना जीवन स्तर।

लोक दुखो का घर है,
यह सुनता आया सन्तों से,
‘क्षमा उत्तमोत्तम गुण है’
यह जाना गुणवन्तों से।

किन्तु क्षमा दुर्बल की
शोभा कभी नहीं होती है,
वह तो बस उपहास पात्र
वन जग में दुख ढोंती है।

क्षमा शक्तिशली का ही
भूषण है वसुन्धरा पर,
क्षमा बनाती जीवन को है
उन्नत और गुणागार।

मैंने जीवन के घटनाक्रम
देखे नित्य नये हैं,
सुख-दुख भरे हुए
कितने क्षण आये और गये है।