भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आकाँक्षा / चन्द्रकुंवर बर्त्वाल
Kavita Kosh से
मैं बनूँ वह वृक्ष जिसकी स्निग्ध छाया में कभी
थे रुके दो तरुण प्रणयी, फिर न रुकने को कभी ।
मैं बनूँ वह शैल जिसके, दीन मस्तक पर कभी
थे रुके दो मेघ क्षण भर, फिर न रुकने को कभी ।
मैं बनूँ वह भग्न-गृह, जिसके निविड़ तम में कभी
थे जले दो दीप क्षण भर, फिर न जलने को कभी ।
मंगलों से जो सजा था मधुर गीतों से भरा
मैं बनूँ वह हर्ष, जाता जो न फिरने को कभी ।