आकांक्षा / निधि सक्सेना
कोई अनचीन्ही आकांक्षा हो तुम
जैसे मन का कोई अनसुना कोलाहल ...
कई बार मन की मुंडेरो से बाहर झाँका
परन्तु वहाँ मुझे मिलीं मेरी ही सलज्ज आंखे
टकटकी बांधे कुछ अनकहा खोजती...
पता है तुम्हें
रोज़ कान्हा को नैवेध रखती हूँ
फिर उसे माथे से लगा कर बाँट देती हूँ...
वंचित रखती हूँ स्वयं को इस तृप्ति से...
ये अतृप्ति आसक्ति का कोई रूप है
या मेरी हठ है
ज्ञात नहीं ...
परन्तु अतृप्त होना आहूत करता है मुझे
मन जैसे केसरिया चूनर ओढ़ लेता हो...
आकांक्षाये पूर्ण हो जाये
तो नश्वर हो जाती हैं...
और तुम तो अनिवार्यता हो
पृथ्वी जल वायु अग्नि और नेहमयी नभ की तरह...
तुम यूँ ही रहो अप्राप्य
कागज़ में फिरती स्मृति की तरह...
मन में बिखरती उदासी की तरह...
आँखों से झरती कनक ओस की तरह...
मैं खोजती रहूँगी पूर्णता
मन में स्वरित सन्नाटों में...
बुझते दीये की महक में...
सपनों में उभरते बिम्बों में...
कि कुछ आकाक्षायें कभी पूरी न हो
मन के स्फुरण के लिए आवश्यक है ये...