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आकाश और आदमी / दिविक रमेश
Kavita Kosh से
आकाश को मैंने
कभी झरोखे से
कभी खिड़की से
और कभी दरवाज़े से देखा है,
और देखा है कभी
खुले मैदान में
खड़ा होकर।
यहाँ तक कि
लम्बी यात्राओं में भी
मैंने आकाश को देखा है।
लेकिन आकाश को
कहीं भी
अपना आकाश खोते
नहीं देखा