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आकाश की आत्मकथा / जयप्रकाश मानस
Kavita Kosh से
नितांत एकाकी नदी हूँ
जब कोई न था, जब कुछ भी नहीं रहेगा
अंत के बाद भी बहता रहूँगा
वह उस दुनिया का सबसे बड़ा भ्रम ही है
जिन्हें दीखता है मेरी गोद में सूर्य, चंद्र, सितारे नक्षत्र
उनसे भी अलग एकदम अकेला
अपने रचयिता का सुनसान के सिवाय
कुछ भी नहीं हूँ मैं
मैं नहीं कर सकता मनपसंद भोर की सैर
मनुष्य की तरह
मेरे लिए कहीं नहीं है गप्पें मारने की जगह
बस्स,
टकटकी लगाकर देखता रहता हूँ पृथ्वी की परिक्रमा को