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तस्या: पातुं सुरगज इव व्योम्नि पश्चार्थलम्बी
त्वं चेदच्छस्फटिकविशदं तर्कयेस्तिर्यगम्भ:।
संसर्पन्त्या सपदि भवत: स्त्रोतसि च्छायसासौ
स्यादस्थानोपगतयमुनासंगमेवाभिरामा।।
आकाश में दिशाओं के हाथी की भाँति
पिछले भाग से लटकते हुए जब तुम आगे
की ओर झुककर गंगा जी के स्वच्छ बिल्लौर
जैसे निर्मल जल को पीना चाहोगे, तो प्रवाह
में पड़ती हुई तुम्हारी छाया से वह धारा
ऐसी सुहावनी लगेगी जैसे प्रयाग से अन्यत्र
यमुना उसमें आ मिली हो।