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आकृतियाँ / मिथिलेश श्रीवास्तव

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हल्की-सी धमक से गिरती है चूने की परत
छोड़ती हुई अपनी जगह कुछ आकृतियाँ
घर के भीतरी दीवार पर

वह आकृति वृक्ष की नहीं है
जिसके नीचे बैठी है एक दूसरी आकृति
पालथी मारे ध्यान लगाए
बाएँ हाथ की एक उँगली से बाईं नासिका दबाए
चादर सच की ओढ़
पथराई हुई-सी आँखों से नहीं पिघलता कुछ भी
फटी बिवाइयों से झड़ता है चूना ।

उत्तर की दिशा में छत के नीचे
कोने में है एक छोटी होती हुई आकृति
पिता जैसी
सफ़ेद सूजी हूई माँसपेशियों वाली
थकी और कर्ज़ में डूबी ।

वह आकृति एक औरत की है
निहारती पति का रास्ता
वह जन्म देने वाली है एक दूसरी आकृति
गिरती है लटकती हुई चूने की एक और परत
बनाती एक और आकृति
अँग्रेज़ी बोलते तुतलाती है जिसकी ज़बान
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में
नौकरी पाने की इच्छा है उसकी
उसके लिए नाउम्मीद और उदास होना आसान हैं ।

वह आकृति एक कवि की है
पाखण्ड के ख़िलाफ़ लिखना चाहता है एक कविता जो
उसके साथ बैठा एक चित्रकार
जला घर देखकर बनाता है जले पंख वाली एक चिड़िया

और वह एक सुलझा हुआ मनुष्य है जो
दिलाता है लोगों को भरोसा
और सब्र से रहने के लिए कहता है ।

कुछ आकृतियाँ उनकी हैं जो
देखने गए थे शहर
छोड़कर अपनी छाया लौट गए घर

कुछ लोग थे रोजगार की तलाश में
वे कहीं गए नहीं इन्हीं दीवारों में बस गए जैसे-तैसे
कुछ आकृतियाँ मिलने के बहाने गई थीं ठहरने
इस घर वे गईं नहीं अभी तक ।

कुछ आकृतियाँ उन ड्रॉपआउटों की हैं
जिन्हें अपने पसीने पर भरोसा था
अपने एहसासों को बचाए रखने में हैं व्यस्त
कभी-कभी अपने किए पर खिन्न हो उठते हैं ।

कुछ और आगे चौथे कोने के पहले
बनी हैं घोड़ों की आकृतियाँ
बिलकुल हुसैन के घोड़ों की तरह दमकती
उनके रंग की तरह कुछ लोग होना चाहते हैं सम्पन्न

काँपती हुई आकृतियाँ गिरती हैं धीरे-धीरे
नीचे फ़र्श पर
कभी-कभार कोई आकृति उठती है दीवार से
और आकर पास बैठ जाती है
अपनी उदासी को मेरी हँसी से मिलाती हुई ।