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आख़िरी दलील / अफ़ज़ाल अहमद सय्यद

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तुम्हारी मोहब्बत
अब पहले से ज़्यादा इंसाफ़ चाहती है
सुब्ह बारिश हो रही थी
जो तुम्हें उदास कर देती
इस मंज़र को ला-ज़वाल बन ने का हक़ था

इस खिड़की को सब्ज़े की तरफ़ खोलते हुए
तुम्हें एक मुहासरे में आए दिल की याद नहीं आई

एक गुम-नाम पुल पर
तुम ने अपने आप से मज़बूत लहजे में कहा
मुझ अकेले रहना है

मोहब्बत को तुम ने
हैरत-ज़दा कर देने वाली ख़ुश क़िस्मती नहीं समझा

मेरी क़िस्मत जहाज़-रानी के कारख़ाने में नहीं बनी
फिर भी मैं ने समंदर के फ़ासले तय किए
पुर-असरार तौर पर ख़ुद को ज़िंदा रक्खा
और बे-रहमी से शाएरी की

मेरे पास एक मोहब्बत करने वाले की
तमाम ख़ामियाँ
और आख़िरी दलील है