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आख़िर ग़मे-ज़ाना को ऐ दिल बढ़ के ग़मे-दौराँ होना था / मजरूह सुल्तानपुरी
Kavita Kosh से
आखिर ग़मे-ज़ाना को ऐ दिल बढ़ के ग़मे-दौराँ होना था
इस क़तरे को बनाना था दरिया इस मौज को तूफ़ाँ होना था
हर मोड़ पे मिल जाते हैं अभी फ़िर्दौसे-जनाँ के शैदाई
तुझ को तो अभी कुछ और हसीं ऐ आ़लमे-इम्कां होना था
वो जिसके गुदाज़े-मेहनत से पुरनूर शबिस्ताँ है तेरा
ऐ शोख़ उसी बाज़ू पे तेरी जुल्फ़ों को परीशाँ होना था
आती ही रही है गुलशन में अब के भी बहार आई है तो क्या
है यूँ कि क़फ़स के गोशों से एलाने-बहाराँ होना था
आया है हमारे मुल्क में भी इक दौरे-ज़ुलैख़ाई यानी
अब वो ग़मे-ज़िन्दां देते हैं जिनको ग़मे-ज़िन्दां होना था
अब खुल के कहूँगा हर ग़मे-दिल 'मजरूह' नहीं वो वक़्त कि जब
अश्क़ों में सुनाना था मुझको आहों में ग़ज़ल-ख़्वां होना था