आख़िर तुम्हारी ज़न्नत का तकाज़ा क्या है / दयानन्द पाण्डेय
तुम्हारी अक़्ल में मज़हब से ज़्यादा क्या है
आख़िर तुम्हारी ज़न्नत का तकाज़ा क्या है
अक़्ल पर ताला, मज़हब का निवाला
अब तुम्हीं बता दो तुम्हारा इरादा क्या है
दुनिया भर से दुश्मनी की बेमुराद मुनादी
मनुष्यता से आख़िर तुम्हारा वादा क्या है
अपने मुल्क़ से, घर से, कुछ तो रिश्ता होगा
ऐसे दहशतगर्द बने रहने में फ़ायदा क्या है
यह अक़लियत है कि ज़हालत का जंगल
तुम्हारे मज़हबी हमले का हवाला क्या है
दुनिया दहल गई है तुम्हारी खूंखार खूंरेजी से
तुम्हारी सोच में ज़ेहाद का यह ज़ज़्बा क्या है
यह ख़ून ख़राबा, गोला बारूद, हूर की ललक
आख़िर तुम्हारे पागलपन का फ़लसफ़ा क्या है
मरते बच्चे, औरतें, मासूम लोग और मनुष्यता
तुम्हारी इन राक्षसी आंखों का सपना क्या है
मेरे भाई, मेरे बेटे, मेरे दोस्त, मेरी जान,
दुनिया में मनुष्यता और मुहब्बत से ज़्यादा क्या है