आख़िर ये बटन / ओमप्रकाश सारस्वत
मेरी वैष्णव आत्मा
जो प्रार्थनाओं के दो जून भोजन
और संध्या के नाश्ते की उत्कोच
के आसरे,जी है
उसे मैं अपना तेज और नहीं पिला सकता
मेरे पेट में भूख के दाँत उग आये हैं
भ्रष्ट उसूलों की तरह
सत्य की हिंसा के
और कई सवालातों के विचित्र नाग
जो मेरी गर्दन पर मफ्लर की तरह लिपटे हैं
मेरा लहू चाट रहे हैं
और मुझे विश्वास है कि
मेरी हड्डियाँ दूध नहीं दे सकतीं
मंझोले दर्द पूरी शताब्दी का कद माँग रहे हैं
अभियोगों की दण्ड संहिता मुझे
मुजरिम की जेल बना देने को बजिदद है
ताकि मैं श्वेत शालों की प्रथम पंक्ति में कंबल–सा-स्याह
टोका हुआ अभियुक्त दिखूँ
(वैसे भी जन्म के अतिरिक्त सारे अपराध
यही पंक्ति करवाती है)
मैंने भाषायी छलावे में
बहुत कोशिश की है सम होने की
शब्द और अर्थ की तरह
यहाँ आकार के लिए कोट
और कोट के लिए पैड बहुत ज़रूरी है
अन्यथा बनावट मर जाती है
मैं तंत्र कीलित हूँ
समाज में अनार्किज़्म है
और प्रकृति में धाँधली
मुझे हर जन्मदिवस पर उम्र ने हरेक साल
बढ़ के ही भोगा है
अब मेरा रहना और भी ज़रूरी हो गया है
मैं उपभोग की वृत्ति हूँ
पर मुझ में जो शान्त उपद्रव है
उससे जुलूस तो निकलेगा
नारे तो लगेंगे
गाय रंभा तो सकती ही है
हाँ, षड़्यन्त्र हो तो हो
पर टाइम-बम हम नहीं चला सकते
हम माचिस जलाने वाले सुर्खियाँ नहीं बनाते
सब एक दूसरे की ओर भाग रहे हैं यहाँ
एक दूसरे से, एक दूसरे में
जैसे कर्फ्यू का भीड़तंत्र डर कर
गलियों में अजनबी हो जाता है
मैं असंग हो रहा हूँ
मुझे मरने भी नहीं आया
यद्यपि हर साल तेन सौ पैंसठ बार आई है मौत
दिनों का ज़हर लेकर
मैं इस निष्क्रियता का क्या करूँ
जो होने के विरुद्ध मेरी देह में, रोम-रोम हो रही है
आज सकने की भाषा में
होने की मजबूरी है
आखिर ये बटन, कब तलक
औपचारिकता निभाएंगे कमीज़ को
थामे रखने की
वैसे मुझे नंगा होने में कोई शर्म नहीं
अगर यह मनु की संतान अपना
नाम बदल ले तो