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आखिर गलती / संगीता शर्मा अधिकारी

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क्यूंकि सीख लिया है
उसने खुश रहना
अपने मन की करना
अपने मन की सुनना
अपने मन की ही कहना

अब अच्छे लगने लगे हैं
उसे हर मौसम
सावन, पतझड़, बसंत, बहार
बारिश के पानी का मुंडेर पर आना
और बूंदों का टपकते हुए
उसके लंबे, घने, काले
बालों को सहलाना।

जो काट देने चाहे थे उस नाइन ने
उसके पति की उस,
अंतिम जीवन यात्रा के दिन

उसने सीख लिया है अब
अपने खुद के लिए भी जीना
बंद कर दिया है
अपने मन को हर बार मारना।

पहनना अपनी पसंद की
सभी कलरफुल साड़ियाँ
लगाना बालों में चमेली वाला गजरा
हाथों में चूड़ियों की खनखनाहट
आंखों में गहरा मोटा काजल
लटों को माथे पर गिराना
डीप बॉटल नेक वाला
ब्लाउज पहनना
शॉर्ट टॉप, टाइट जींस
हाफ पेंट, कट स्लिवस के साथ
कहीं भी, कभी भी
गाड़ी में सेल्फ लगा
यूं ही सुनसान सड़कों पर
रात दिन गश्त लगाना।

समुद्र किनारे
एक गर्म चाय की प्याली के साथ
एक दूसरों की सांसों और
देह की गर्माहट को महसूसते जाना।

लेकिन
लेकिन तुम तो विधवा हो न!
फिर तुम कैसे रह सकती हो खुश?

जिस दिन चला गया था
तुम्हारा पति इस दुनिया से
उसी के साथ ही चली गई थीं
तुम्हारी सभी खुशियाँ भी

फिर क्यों हरदम
मछली-सी झटपटाती रहती हो
छोटी-छोटी खुशियों के लिए
ढूँढती रहती हो उनमें
कोई एक लम्हा
अपने सुकून का

सुनो, इस 'योग' में खुश रहना
भाग्य नहीं तुम्हारा।

बिल्कुल
बिल्कुल, यहीं गलती तो हो गई है तुमसे
यहीं गलती तो हो गई है तुमसे।