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आग के फूल / रणजीत साहा / सुभाष मुखोपाध्याय
Kavita Kosh से
तूफ़ान सिर पर ढोये, आ रहे हैं हम।
अपने बिबाई-फटे कीचड़सने पाँवों में
और शान चढ़ानेवाले पत्थर में
आग के फूल बटोर
आ रहे हैं हम।
पहले हमारी आँखों में थे आँसू
अब है आग
हाड़-पिंजर से दीखनेवाले लोग
अब
वज्र तैयार करनेवाले कारखाने हैं।
जिनकी संगीनों में से चिलक रही है बिजली
वे सामने से हट जाएँ।
हमारे लम्बे-चौड़े कन्धे की ठोकरों से
गिर रही हैं दीवारें टूट-टूटकर।
दूर हटो!
हम सारा गाँव ख़ाली कर आ रहे हैं
ख़ाली हाथ नहीं लौटेंगे।