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आग जंगल की (तस्लीमा नसरीन और एम् एफ हुसैन के नाम) / सजीव सारथी

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पहरे हैं ज़ुबानों पर, लफ्ज़ नज़रबंद हैं,
आज़ाद बयानों पर लगे, फतवों के पैबंद हैं,

फाड़ देते हैं सफ्हे, जो नागावर गुजरे,
तहरीर के नुमाइंदे ऐसे, मौजूद यहाँ चंद हैं

तस्वीरे-कमाल कितने रानाईये-ख्याल,
मेहर है इनकी जो आज, मंज़ुषों में बंद हैं,

हथकडियाँ दो चाहे फांसी पर चढ्वा दो,
जुल्म के हर वार पर, जोरे-कलम बुलंद हैं,

पीकर के जहर भी, सूली पर मरकर भी,
जिंदा है सच यानी, झूठ के भाले कुंद हैं,

बेशक जोरो-जबर से, दबा दो मेरी चीख तुम,
आग है जंगल की, ये लौ जो अभी मंद हैं.