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आग पर कदम / हरकीरत हीर
Kavita Kosh से
तुमने मेरे
जले हाथों में
भर दी है फिर से अगन
जब तुम
जला रहे थे
मेरे हाथों की लकीरें
उस वक़्त मैं देह के ब्रह्माण्ड से
चुन रही थी
सुलगते अक्षरों के शब्द
अब नहीं तलाशेगी मेरी क़लम
मुहब्बत का अर्थ लकीरों में
और न ही मैं इस आग की ख़ातिर
हवा से उधारी लूँगी
शीतलता
अब
जब भी रिसता है
बूँद बूँद इन हाथों से दर्द
ये कर देते हैं अपने ही ज़ख़्मों का
अनगिनत अनुवाद
इससे पहले कि
फफोले फूटकर पानी बह जाये
और मैं इस पीड़ा से मुक्त हो जाऊँ
मैं बो देना चाहती हूँ
नज़्मों की छाती में
उन तमाम सुलगते अक्षरों की
अगन
अब मैं
देखना चाहती हूँ
ख़ुद को तुमसे दूर
आग पर कदम रखकर