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आग / मोहन आलोक
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आग
ये जो चूल्हे में जल रही है
आग
लोगबाग
इस एक ही रट को लगाए हुए हैं
कि जल रही है
परंतु
मैं कहता हूं
जितना यह जल रही है
उतना ही
जलने से टल रही है
जलता तो
जंगल है
मंगल है
मनुख (मनुष्य) है
इस के सुख ही
सुख है
छल रही है
उत्पति को
निगल रही है
और दिन ब दिन
अजगर की तरह पल रही है ।
अनुवाद : नीरज दइया