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आज़ादी की चुहिया / केशव

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नहीं दोस्त
इसमें कसूर उनका नहीं इतना
जितना तुम्हारे निष्कपट हृदय में
टिमटिमाते तारे का
जो हर सुबह
दुस्साहस के लिए
करता है प्रेरित तुम्हें
और रात होते ही दुबक जाता है
कांटेदार झाड़ियों में

ऐन वक्त पर
फेंकते हैं वे तुम्हारे सामने
ठंडे गोश्त-सा उम्मीद का टुकड़ा
जिसे झपटकर
बेसब्री से चबाने लगते हो तुम

उस वक्त तुम्हें याद नहीं रहते
अपनी देह पर पड़े नीले निशान
तार-तार ब्लाउज से झांकती
पत्नी की पसलियां
और बच्चे की आंखों में
डबडबाती
आइसक्रीम की लालसा
जिन पर से उनकी चमचमाती गाड़ियाँ
गुज़र जाती हैं बेधड़क
उन्हें तो हर झरोखे से
दिखाई देती है कुर्सी
वे पहनते हैं कुर्सी
ओढ़ते हैं कुर्सी
खाते हैं कुर्सी
और तुम्हें?
ऐसा क्या दिखाई देता है दोस्त!
कि तुम भूल जाते हो
अपनी पीठ पर लदे
बत्तीस क्विंटल अनगढ़े
पत्थर के बोझ की पीड़ा

भूल जाते हो
कि राशन की दुकान के सामने
लगी अंतहीन कतार में
खड़े हो आज भी
उसी नंबर पर
तहखाने में बंद
अनाज को खोखला करने के बाद
तुम्हारी देह में
कब घर बना लेता है घुन
तुम्हें पता ही नहीं चलता

और उधर
उनकी कुर्सी को
पहले से भी अधिक
आरामदेह बनाने में
जुटे रहते हैं वे तमाम बौने कारीगर
जिन्हें साल-दर-साल
बांटे जाते हैं टोकरों में भरकर
मैडल और प्रशंसापत्र
पर
करोड़ें आंखों में
कराहते भूख के सपने को
कैनवस पर उतारकर भी
खाली के खाली रहते हैं तुम्हारे हाथ
तुम्हारी जिंदगी क्या है
अँधेरे में छटपटाती एक चीख

फिर भी बाँसुरी की तलाश में
लहूलुहान हैं तुम्हारे पाँव
खाली कुएँ की जगत पर
धरे हैं तुम्हारे पपड़ाये होंठ
और तुम्हारी आत्मा को कुतर रही है
आजादी की चुहिया
तो इसमें उनका क्या दोष?