आज़ाद कौन? / रंजना जायसवाल
उनके पंख नहीं हैं,पर वे उड़ती हैं
सलीके से बंधे जुड़े और साड़ी में परी-सी
उनकी पलके रंगीन हैं
किसी की नीली, किसी की फिरोजी
हरी,तो गुलाबी किसी की
होंठों पर भी खुशनुमा रंग है
चेहरा चमकता है शीशे-सा
जिस्म हवा की तरह हल्का और ताजा
उम्र भी नवीन है,खुशबू से महकता है
वे बोलती नहीं, कूकती हैं
चलती हैं सधी चाल
सभ्य.. सुंदर .. शालीन
वे दादी-नानी की कहानियों की परियाँ हैं
ताकते रह जाते हैं बुड़बक की तरह
जिन्हें पहली बार देख कर लोग
हाथों में ट्रे लिए बाँटती हैं वे
खट्टी-मिट्ठी गोलियाँ और जो भी यात्री चाहे
टाल जाती हैं कामुक दृष्टि,छुअन व
चाहतों को मुस्कुराकर
आखिर वे परिचारिकाएं ही तो हैं!
बड़ा ही नपा-तुला-सधा
संयमित जीवन है उनका
'फीगर' के अनुशासन से
न खा सकती हैं मनचाहा
न हँस सकती हैं
शायद जी भी नहीं सकती
अपनी मर्जी से
कैरियरिस्ट ये परियाँ
सोचती हूँ -क्या आजाद हैं ये
कि आजाद है
वह घसियारिन चम्पा
बिखरे बालों और सूती साड़ी में औरत-सी
जिसकी पलकें और होंठ सांवले हैं
चेहरे पर पसीने का नमक
भरा-सांवला बदन
आदम गंध से महकता है
जो भर- पेट खाती है
चटनी-भात
लिट्टी-चोखा
ठठाकर हँसती है
असभ्य..अनपढ़ ..अशालीन
जमीन पर चलती है अक्सर
नंगे पाँव
पर तान लेती है हँसिया
कामुक दृष्टि छुअन व चाहत पर।