आज़ाद हिन्द फ़ौज / त्रिलोकचन्द महरूम
अय जैसे-सरफ़रोशे-जवानाने-ख़ुशनिहाद
सीने पे तेरे कुंद हुई तेग़े-इश्तिदाद
ग़ुर्बत में तूने दी है शुजाअत की ख़ूब दाद
अक़्वामे-दहर करती है ज़ुरअत पे तेरी साद
तू कामराँ रहे, तिरे दुश्मन हों नामुराद
हिन्दोस्ताँ की फ़ौजे-ज़फ़र मौज ज़िन्दाबाद
दरिया-ओ-दश्त-ओ-कोह में तेरा बिगुल बजे
जिसकी सदा से गुम्बदे-गर्दूं भी गूँज उठे
मैदाँ में मौत भी जो मुजस्सम हो सामने
तेरे दिलावरों के न हों पस्त हौसले
हो बल्कि उसका और भी तोशे-अमल ज़ियाद
हिन्दोस्ताँ की फ़ौजे-ज़फ़र मौज ज़िन्दाबाद
परदेस में जो खेत रहे हैं जवाँ तिरे
हैं दफ़्न ज़ेरे-ख़ाक ख़ज़ाने वहाँ तिरे
बर्मा के जंगलों में लहू के निशाँ तिरे
नक़्शे-दवाम हैं वह तहे-आस्माँ तिरे
ता रोजे-हश्र अहले-वतन को रहेंगे याद
हिन्दोस्ताँ की फ़ौजे-ज़फ़र मौज ज़िन्दाबाद
आज़ादिए-वतन की तमन्नए-दिल नवाज़
ज़िन्दाँ में घुट के रह गई या दिल में मिस्ले-राज़
कहते थे जुर्म जिसको हुकूमत के हीलासाज़
तेरे अमल हो उसको मिली खिलअते-जवाज
अब ‘हक़’ है जिसका नाम रहा ‘ग़दर और फ़साद’
हिन्दोस्ताँ की फ़ौजे-ज़फ़र मौज ज़िन्दाबाद
ग़ालिब था बस्किसाहिरे-अफ़रंग का फ़सूँ
दो सौ बरस से था इल्मे-हिन्द सर नगूँ
तूने दयारे-ग़ैर में दिखला दिया कि यूँ
मर्दाने-कार करते हैं बातिल को ग़र्के़-ख़ूँ
बातिल हो ख़्वाह कोहे-गराँ ख़्वाह गर्दबाद
हिन्दोस्ताँ की फ़ौजे-ज़फ़र मौज ज़िन्दाबाद