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आजा मेरे बचपन आजा / शिशुपाल सिंह 'निर्धन'

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आजा मेरे बचपन आजा

जब मेरा पहला पैर कभी तेरी दुनिया में आया था,
लल्ला, मुन्ना, भैया कहकर, सबने ही प्यार जताया था।
तब नेह न था मुझको इतना, इस पैसा और रुपैया में,
माँ से मेरी यह हठ तो थी कि बिठला दे मुझे ऊँट भुलैया में।
जब द्वेष-भाव का नाम न था, मेरे वो पावन क्षण आजा
                                         आजा मेरे बचपन आजा।

जब जलते दीपक की लौ में मेरी लौ भी लग जाती थी,
तब मुझसे बातें करने में सबकी वाणी तुतलाती थी।
नभ पर तारों के आते ही, बिस्तर पर मैं सो जाता था,
एक प्यार भरा चुम्बन मुझको सूरज के बाद जगाता था।
प्रातः चुल्लू-भर पानी में माँ रोज़ बनाती थी राजा
                                         आजा मेरे बचपन आजा।

खटिया पर खेला करता था, ले रोटी का टुकड़ा कर में,
कर काँव-काँव झपटा करता, कौआ रोटी पर क्षण-भर में।
जननी धमकाया करती थी — खाले, वरना मैं खा जाऊँगी।
जो अबकी रोया और तनिक, रामू की माँ बन जाऊँगी।
यूँ प्यार जताया करती थी, आजा रे कौआ ती खा जा
                                      आजा मेरे बचपन आजा।

मैं खेल-खेलकर खेल नए, जब अपने घर को आता था।
करने पर खेल ख़तम हर दिन, ननुआ अपना मर जाता था।
इस तरुणाई ने तो मुझको, ऐसे खड्डे में डार दिया,
बन्धन की बेड़ी पैरों में, बचपन का ननुआ मार दिया।
अब बिना कहे सो जाता हूँ, आजा रे मेरे हौआ आजा
                                     आजा मेरे बचपन आजा।

मैं देख पराई नई वस्तु, रोया-चिल्लाया करता था।
चिड़िया ले गई — कह देने पर, फिर ख़ुश हो जाया करता था।
अब वो मेरे सोना से दिन, उड़ गई कहाँ चिड़िया लेकर,
राजा से रंक बनाया है मेरे जीवन का धन लेकर।
वो गीत नया कर जा फिर से, आजा चन्दा मामा आजा
                                         आजा मेरे बचपन आजा।

वो बन्दर वाला जब आकर बन्दर नचवाया करता था।
ससुराल बन्दरिया बन्दर के, हाँ, संग भिजवाया करता था।
जब उसके खेल नहीं बदले
   

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