आजु मैं गाइ चरावन जैहौं / सूरदास
आजु मैं गाइ चरावन जैहौं।
बृन्दावन के भांति भांति फल अपने कर मैं खेहौं॥
ऐसी बात कहौ जनि बारे देखौ अपनी भांति।
तनक तनक पग चलिहौ कैसें आवत ह्वै है राति॥
प्रात जात गैया लै चारन घर आवत हैं सांझ।
तुम्हारे कमल बदन कुम्हिलैहे रेंगत घामहि मांझ॥
तेरी सौं मोहि घाम न लागत भूख नहीं कछु नेक।
सूरदास प्रभु कह्यो न मानत पर्यो अपनी टेक॥
भावार्थ: यह पद राग रामकली में बद्ध है। एक बार बालकृष्ण ने हठ पकड़ लिया कि मैया आज तो मैं गौएं चराने जाऊंगा। साथ ही वृन्दावन के वन में उगने वाले नाना भांति के फलों को भी अपने हाथों से खाऊंगा। इस पर यशोदा ने कृष्ण को समझाया कि अभी तो तू बहुत छोटा है। इन छोटे-छोटे पैरों से तू कैसे चल पाएगा.. और फिर लौटते समय रात्रि भी हो जाती है। तुझसे अधिक आयु के लोग गायों को चराने के लिए प्रात: घर से निकलते हैं और संध्या होने पर लौटते हैं। सारे दिन धूप में वन-वन भटकना पड़ता है। फिर तेरा वदन पुष्प के समान कोमल है, यह धूप को कैसे सहन कर पाएगा। यशोदा के समझाने का कृष्ण पर कोई प्रभाव नहीं हुआ, बल्कि उलटकर बोले, मैया! मैं तेरी सौगंध खाकर कहता हूं कि मुझे धूप नहीं लगती और न ही भूख सताती है। सूरदास कहते हैं कि परब्रह्म स्वरूप श्रीकृष्ण ने यशोदा की एक नहीं मानी और अपनी ही बात पर अटल रहे।