आज कन्या है जग में भार / भूपराम शर्मा भूप
आज कन्या है जग में भार।
सबको ज्ञात जनक का प्रण है
कहता पृथ्वी का कण-कण है
कन्या-जन्म कष्ट-कारण है
कर देता है पितृ ह्रदय में चिंता की भरमार।
सबका ही सर्वत्र कथन है
कन्या सिर्फ पराया धन है
बहुत कठिन उसका पालन है
पीहर के ध्यान में सदा रहता पति का परिवार।
गायन- वादन- नृत्य सिखाते
हर सुहाग -विन्यास बताते
इसीलिए हर भाँति सजाते
पति-ह्र्द-झोली रूप-नगर के लूट न लें बटमार।
माँ का अनुशासन सहती है
चाची समझाती रहती है
दादी बार बार कहती है
कुछ तो करना सीख निगोड़ी-जाना है ससुरार।
यदि तनिक भी आँख दुख आयी
निकल यदि कहीं चेचक आयी
माँ के उर चिन्ता घिर आयी
रूप गया तो कौन लली को कर लेगा स्वीकार।
वर को जहाँ ढूँढ़ने जाते
वहीं हज़ारों माँगे जाते
मन में सोच वहाँ से जाते
कन्या दी तो धन मनमाना क्यों न दिया करतार।
कहीं न विद्या,कहीं न धन है
कहीं दूर से हटता मन है
महाकठिन वर-निर्वाचन है
थक जाते हैं दृग इस दिन का पंथ निहार निहार।
कन्याओं को जहाँ सरासर
होता हो इस कदर निरादर
उस देश मे सोचिए प्रियवर
कैसे हो सीता -सावित्री देवी का अवतार।
कहाँ गए वे दिन परमेश्वर
लेने पुत्र वधू को सत्वर
नम्रभाव से याचक बनकर
नृप तक जाया करते थे कन्या वालों के द्वार