आज की कविता / शैलजा सक्सेना
ऐसी चली हवा कि…
मेरी कविता की कल्पना बेल सूख गई अचानक
छन्दों की नगरी में मची ऐसी भगदड़
कि कोई दोहा और चौपाई तक पीछे नहीं छूटा
और सारा का सारा काव्यशास्त्र नगर खाली हो गया।
ऐसी चली हवा कि...
अफगानिस्तान के पथरीले ढूहों पर,
घर से बहुत दूर एक अजाने देश की अजनबी मिट्टी पर
सम्वेदनाहीन आँखों के बीच
अकेले मरते सैनिक की आह ने
मेरी सम्वेदना के नाचते पैर थाम लिए,
और अपने प्रेमी की मदभरी आँखों मे
मुझे उस बूढे अफ़गानी की आँखें दिखाई देने लगी
जिसने अपने दूसरे पोते को दफ़नाया था कल.
बेटे तो बहुत पहले ही बिछुड गए थे उससे।
ऐसी चली हवा कि...
मेरे सारे रूपक, सारी उपमाएँ
सारे अलंकार फैल गए
काले कपड़ों में लिपटी
हाय-हाय करती उस बेवा के
चारों तरफ़,
जो बुक्का फाड़ रोना चाहती है
और बुरका उतार भाग जाना चाहती है
चारों तरफ़ के खून-खराबे से बहुत दूर।
ऐसी चली हवा कि...
मेरे गीत अचकचा कर
भाग जाना चाहते हैं दीवारों के पीछे,
देख नही पाते हेटी में मरते आदमी
नाइजीरिया - युगांडा मे उठती राइफलें
इथियोपिया की सूखे से दरकती धरती,
चीन के बन्द तहखानों मे पसीना बहाते
बच्चे रोने लगते हैं मेरे कलम उठाते ही
और सुनामी की लहरों से उजड़े लोग
उमड़ आते हैं मेरी चेतना की लहरों में।
मेरी दार्शनिकता,
जीवन के रहस्यों पर विचार करना बन्द कर,
भागती है अपने भारी-भरकम पोथे
उठा जब ६ अरब की
आबादी अपने को दिनरात
असुरक्षित महसूस करती है।
जब प्रवासी होने के कारण
एक देश का विद्यार्थी पिटता है दूसरे देश में,
और एक देश अपने ही लोगों के हाथों से
छीन लेता है निवाला
क्योंकि वह निवाला
बेचा जा सकता है,
सस्ते दामों में दूसरे देशों को!
जब रोटी देने वाली ज़मीन पर
बनाए जाने लगते है संकीर्णता के पिंजरे
और लोग अपनी वफ़ादारी पलट देते हैं।
मेरी कविता के पेट से
स्खलित हो जाता है भविष्य का सपना
जब हम आतंकवादियों के बमों को,
राजनीतिज्ञों की भ्रष्ट करतूत को,
न्यायालय के अन्याय को,
नीतियों की कुरीतियों को,
मान कर अपने जीवन का हिस्सा
बेबसी से देखते हैं कि
"किया ही क्या जा सकता है?"
तब...
तमतमा उठती है मेरी कविता!
उसकी फुँकार से
अलंकार और कल्पना के
इन्द्रधनुषी पँख
जलने लगते हैं
और कविता तैयार होने लगती है
नुकीला पत्थर बनने को
जिस पर
छन्दों और रूपक का,
अलंकार और कल्पना का,
प्रेम और उदासी का मखमली कपड़ा नहीं चढ़ाया जा सकता
बल्कि जो वार करती है
सीधा- सीधा!
सच को सच और झूठ को झूठ कहने की
ताकत पैदा करती है कवि में
और कवि को
कवि से पहले बनाती है
एक मनुष्य!