भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज की नियति से / देवेन्द्र कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ख़ाली जेबों को
कुछ बातों से भर लें
कुछ जी हलका कर लें,
आज की नियति से
इतना करें, उबर लें ।

घोंसले-घरौंदे
पानी के पौदे
सूखे को बाँध और बाढ़ को
प्रगति
माने बैठे हैं हम !

किस भोर के मसौदे
अधपके ख़यालों से
दाढ़ी के बालों से
ऐसी क्या बात पड़ी
घुटनों में सर लें ।

बहुत दिनों बाद सुने
मछुवों ने जाल बुने
आँधी का जिक्र चला
हम-तुम ख़ामोश रहे
पेड़ों को बहुत खला
सुबह न हो
शाम न हो
चीज़ों का नाम न हो
ऐसी जगह कोई --
छोटा-सा घर लें ।