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आज गंधहीन हवा में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

आज गंधहीन हवा में
केकरा के खोजत हम
वने वने बउआत बानीं?
आज धीकल नीलांबर में
केकरा रोआई के
करुण स्वर सुनात बा?
दूर-दूर दिक् दिगभेंत मेभें
सकरुण संगीत उठे
सुन-सुन के चिभेंत होय
काँपेला करेजा काहे?
गंधहीन हवा में
हम केकरा के खोजिले?
ना जानीं जे कवना मोहक राग पर
मुग्ध होके, सुखी होके,
उत्सुक जवानी जाग उठल बा?
आज आम के मोजरन का
मादक महक में,
नवही पतइन के
मर्मर छंदन में,
चाँदनी के अमृत से नहा के
भींजल आसमान में,
लोर के आनंद भरल छुअन में
का बा, काथी बा?
कौन अइसन चीज बा,
जो गंध-विधुर वयु
आज पुलकित हो रहल बा?
हम केकर स्पर्श पाके
रोमांचित हो रहल बानी?