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आज जन्मवासर का विदीर्ण कर वक्षस्थल / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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आज जन्मवासर का विदीर्ण कर वक्षस्थल
प्रिय मरण विच्छेद का आया है दुःसंवाद;
अपनी ही आग में शौक के दग्ध किया अपने को,
उठा उद्दीप्त हो।
सायाह्न बेला के भाल पर अस्त सूर्य
रक्तोज्ज्वल महिमा का करता जैसे तिलक है,
स्वर्णमयी करता है जैसे वह
आसन्न रात्रि की मुखश्री को,
वैसे ही जलती हुई शिखा ने
‘प्रिय मृत्यु का तिलक कर दिया मेरे भाल पर
जीवन के पश्चिम सीमान्त में।

आलोक में दिखाई दिया उसका अखण्ड जीवन
जिसमें जनम मृत्यु गुँथे एकसूत्र में;
उस महिमा ने उद्वार किया उस उज्जवल अमरता का
कृपण भाग्य के दैन्यन अब तक जिसे ढक रखा था।

मंपू: दार्जिलिंग
वैशाख 1997