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आज जो चाहे कहो / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'
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आज जो चाहे कहो, सब कुछ हमें स्वीकार!
आज तो यह मन भटकता-दूर-दूर, सुदूर,
है जहाँ बस रेत, सागर, चाँद, नाव, खजूर,
बैंगनी जल छौंकता-सा क्षितिज का अंगार,
आज जो चाहे कहो, सब कुछ हमें स्वीकार!
आज मन में है न ज्वाला, ताप, या प्रतिशोध,
है हमें करना किसी का भी न आज विरोध,
स्थगित सारा कार्य-मन का आज है रविवार!
आज जो चाहे कहो, सब कुछ हमें स्वीकार!
आज जी करता-पखेरू छोड़ कर निज नीड़-
जा रहा जिस ओर, जाऊँ मैं भुलाने पीड़!
नयन में फैला गगन हो, पग तले संसार,
आज जो चाहे कहो, सब कुछ हमें स्वीकार!
आज दृग मंे भर किसी का गुलमुहरिया रूप-
कनपटी पर, साँझ की सहता रहूँ यह धूप!
आज कोई भी न कुछ मुझसे करे व्यवहार,
आज जो चाहे कहो, सब कुछ हमें स्वीकार!